August 6, 2025
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“सनातन का सौदा बंद करो”: स्वामी प्रबोधानंद गिरि का प्रेम आनंद और अनिरुद्ध आचार्य पर तीखा प्रहार,,,

धर्म मंच नहीं, नाटकशाला बना दिया गया है”— स्वामी प्रबोधानंद गिरि ने तथाकथित संतों की भाषा, अभिनय और विमर्श पर उठाए सवाल

सनातन धर्म को लेकर देशभर में एक नई बहस तब शुरू हुई जब हिंदू रक्षा सेना के राष्ट्रीय संरक्षक और काशी-हरिद्वार पीठ के वरिष्ठ संत स्वामी प्रबोधानंद गिरि महाराज ने दो नामचीन प्रवचनकारों — प्रेम आनंद और अनिरुद्ध आचार्य — पर सीधा और कठोर प्रहार किया।

स्वामी प्रबोधानंद गिरि ने प्रेम आनंद को “कालनेमि” और अनिरुद्ध आचार्य को “धर्म का ठग” कहकर संबोधित किया। उन्होंने आरोप लगाया कि ये लोग मंचों पर धर्म की आड़ में अभिनय, नाच-गाने और भ्रामक विचारधारा के ज़रिये सनातन धर्म का अपमान कर रहे हैं।

“ताली बजाकर और नाच गाकर कमाने वाले सनातन धर्म का सौदा कर रहे हैं। ऐसे चरित्रहीन लोग भारत की देवियों को चरित्र प्रमाण पत्र देंगे? ये हास्यास्पद ही नहीं, शर्मनाक है।”
— स्वामी प्रबोधानंद गिरि, हरिद्वार

 विवाद की जड़ में क्या है?

1. प्रेम आनंद का बयान:
हाल ही में प्रेम आनंद द्वारा वायरल एक वीडियो में “सीता माँ के वनवास” और त्याग पर कथित सवाल उठाए गए, जिसे संत समाज ने “धार्मिक भावनाओं का घोर अपमान” बताया है।

2. अनिरुद्ध आचार्य की प्रवचन लीला:
कुछ दिन पूर्व अनिरुद्ध आचार्य ने मंच से राधा-कृष्ण की लीलाओं को लेकर एक भ्रामक और व्याख्याहीन विमर्श प्रस्तुत किया, जिसमें कई आलोचकों ने “लीलाओं को प्रेम के नाम पर हल्का और विकृत” किए जाने का आरोप लगाया।

स्वामी प्रबोधानंद गिरि ने और क्या कहा?

“जो खुद ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते, वे वेद-शास्त्र की व्याख्या कैसे करेंगे? ये लोग जब मंच पर अभिनय करते हैं, तो धर्म का अपमान नहीं—तमाशा करते हैं।”
— स्वामी प्रबोधानंद गिरि

“सनातन धर्म अभिनय नहीं है, वह आत्मसंयम, त्याग और सत्य का पथ है। ऐसे पाखंडी लोग खुद को संत कहें, ये धर्म का सबसे बड़ा अपमान है।”

संत समाज की प्रतिक्रिया

हरिद्वार, वृंदावन, उज्जैन और अयोध्या के अनेक संतों ने इस पूरे विवाद पर चिंता जाहिर करते हुए जल्द ही एक अखिल भारतीय संत सम्मेलन बुलाने की बात कही है, ताकि मंचीय धर्म और डिजिटल पाखंड पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके।

यह विवाद केवल दो प्रवचनकारों के व्यक्तिगत विचारों का मामला नहीं है, यह सनातन परंपरा और उसकी गंभीरता को लेकर चल रही एक मूलभूत वैचारिक लड़ाई का संकेत है। ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि धर्मगुरु, संत समाज और श्रद्धालु इस विमर्श को किस दिशा में लेकर जाते हैं।

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