“मैं जा रहा हूं शिवत्व की ओर”: ध्यानश्री शैलेश की आत्मानुभूति से ओतप्रोत कविता ने सबको किया आत्ममंथन को विवश

— आध्यात्मिक चेतना और सामाजिक विसंगतियों के बीच आत्मा की ऊर्ध्वगति की मौलिक घोषणा
उत्तराखण्ड हरिद्वार: आध्यात्मिक साहित्य में एक नई लहर पैदा करते हुए ध्यानश्री शैलेश ने अपनी नवीनतम कविता “मैं जा रहा हूं” के माध्यम से आत्मा की उस यात्रा को स्वर दिया है जो संसार की सीमाओं, सामाजिक मान्यताओं और पंचतत्वों के बंधनों को तोड़ शिवत्व की ओर अग्रसर होती है।
यह कविता न केवल व्यक्ति की भीतरी पीड़ा, समाज की रूढ़ियों और मानसिक कुंठाओं को उजागर करती है, बल्कि उस आत्मिक उड़ान की बात करती है जो महाकैलाश की ओर होती है—जहां ‘हिमालय भी नीचे दिखता है’ और ‘सागर की गहराई भी पार हो जाती है’।
शैलेश की पंक्तियाँ “कि पंचतत्व से परे होना एक महायोग” यह स्पष्ट करती हैं कि यह रचना मात्र एक कविता नहीं, बल्कि एक आह्वान है—सभी आत्माओं के लिए, जो बंधनों से मुक्ति चाहती हैं और शिवत्व की ओर प्रस्थान करना चाहती हैं।
आपको बता दें शैलेषानंद गिरि महायोगी पायलट बाबा के प्रिय शिष्यों में से एक माने जाते हैं
रचित कविता।
“मैं जा रहा हूँ — शिवत्व की ओर”
मैं जा रहा हूँ,
उस लोक में जहाँ काल की सीमा नहीं,
जहाँ प्रेम, सुगंध-भरी वायु नहीं —
एक तप है,
जहाँ मैं स्वयं को बिखेर दूँगा
क्षितिज की असीम रेखाओं में।
मैं जा रहा हूँ,
कि जलूं नहीं समाज के झूठे मानदंडों में,
प्रतिद्वंद्विता स्वीकार है,
पर जलन में घुलना नहीं।
मैं तो घुलता रहा —
तरल जल सा हर किसी में,
पर लोग ठहरे, सड़े —
जैसे कुंठित तालाबों में घुली दुर्गंध।
मैं जा रहा हूँ,
जो थामा सबका भार,
उन्हीं ने खोद दी भूमि मेरे नीचे।
पर अब नहीं, अब थमना नहीं।
मैं जा रहा हूँ —
जहाँ उड़ानें हों अनंत,
जहाँ आकाश का हृदय मेरे भीतर हो
और मैं उसी में विलीन हो जाऊँ।
बंधे रहो तुम —
जहाँ न वायु का बहाव हो,
न अग्नि का ताप,
न जल की शीतलता,
न भूमि का आधार,
न आकाश का विस्तार।
रहो सिमटे, सिकुड़े,
पर मैं जा रहा हूँ —
उस पार।
उस तपस्या में,
जहाँ भस्म ही है मेरा श्रृंगार,
और हर श्वास में मैं खुद को बिखेरता हूँ —
एक स्मृति बनकर।
चलना था जिनके संग,
वो उलझ गए, रुक गए,
मैं आगे बढ़ चला —
पंचतत्व से परे
एक महायोग की ओर।
मैं जा रहा हूँ,
“शिवत्व की ओर”
“महा कैलाश की ओर।”