जो आपकी आवाज़ बनते हैं, कभी उनकी आवाज भी सुनिए :पत्रकारों की पीड़ा का सच”

स्वतंत्र भारत का निर्माण हुआ, लेकिन पत्रकारों की स्वतंत्रता और सुरक्षा आज भी सवालों के घेरे में है। जब कोई नहीं बोलता, तब यही कलमकार सच को आवाज़ देते हैं। लेकिन अफसोस, आज वही आवाज़ें खुद बेसहारा और असुरक्षित हैं।
हरिद्वार:सरकारें आईं और गईं, हर बार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ — पत्रकार — को वादों की चादर में लपेट दिया गया। लेकिन जब ज़मीन पर उतरते हैं, तो दिखाई देता है एक ऐसा यथार्थ जिसमें पत्रकार न केवल मानसिक और आर्थिक शोषण झेलते हैं, बल्कि कई बार जान से भी हाथ धो बैठते हैं।
बिना वेतन महीनों काम करना, सत्ता के इशारे पर छंटनी झेलना, विज्ञापन न मिलने पर संस्थानों का बंद हो जाना — ये केवल आंकड़े नहीं, पत्रकारों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं।
संवेदना:हर रोज़ एक पत्रकार अपने परिवार से दूर सच्चाई की खोज में निकलता है, न जाने किस खतरे का सामना करना पड़े — इसका कोई भरोसा नहीं। फिर भी निडरता से सच को जनता तक पहुंचाना उसका कर्तव्य बन गया है। पर कोई नहीं पूछता कि जब वही पत्रकार अपने दर्द से गुज़रता है तो कौन उसका हाथ थामता है?
कहानी से उदाहरण:मध्य प्रदेश के एक स्वतंत्र पत्रकार रमेश यादव की कहानी इसका उदाहरण है। पंचायत घोटाले की खबर प्रकाशित करने के बाद उन पर जानलेवा हमला हुआ। अस्पताल का खर्च भी खुद ही उठाया। न सरकार, न संस्थान — कोई सामने नहीं आया।
अपील:पत्रकारों के लिए सुरक्षा कानून, स्थायी बीमा योजना, न्यूनतम वेतन गारंटी और प्रेस स्वतंत्रता की पूर्ण सुरक्षा — यही हैं वे बुनियादी आवश्यकताएं, जिनके बिना लोकतंत्र अपंग है।
अंतिम पंक्तियाँ (भावुक समापन):जो आपकी आवाज़ बनते हैं, कभी उनकी आवाज़ भी सुनिए।
जो हर रोज़ आपकी लड़ाई लड़ते हैं, कभी उनके लिए भी लड़िए।
क्योंकि अगर कलम टूट गई, तो सच भी गूंगा हो जाएगा।